फटाके मुगलो के पहले से भारत में प्रचलित है
Elaborate description of fireworks in mythological works from this period also bring in imaginations of pyrotechnic exuberance, familiar to the writers of this period, around these epic events. For example, a popular sixteenth century Marathi poem by the saint Eknath called “Rukmini Swayamvara,” describing Rukmini’s wedding with Krishna, mentions a range of fireworks, from rockets to the equivalent of the modern phooljhadi.
प्राचीन ग्रंथों में दिवाली के त्योहार पर भी लोग ख़ुशी का इज़हार रौशनी कर के करते थे, शोर कर के नहीं.
पटाखों से शोर करना तो चीन की परम्परा थी. चीन में मान्यता थी की पटाखों के शोर से डर कर बुरी आत्माएं, विचार, दुर्भाग्य भागेगा और सौभाग्य प्रबल होगा.
यह विचार शायद भारत में आतिश दीपांकर नाम के बंगाली बौद्ध धर्मगुरू ने 12वीं सदी में प्रचलित किया.
वे शायद इसे चीन, तिब्बत और पूर्व एशिया से सीख कर आए. अन्यथा भारत के ऋग्वेद में तो दुर्भाग्य लाने वाली निरृति को देवी माना गया है और दिकपाल (दिशाओं के 9 स्वामियों में से एक) का दर्जा दिया गया है.
इतना ज़रूर है कि भारत प्राचीन काल से ही विशेष रोशनी और आवाज़ के साथ फटने वाले यंत्रों से परिचित था. दो हज़ार से भी ज़्यादा साल पहले भारत के मिथकों में इस तरह के यंत्रों का वर्णन है.
ईसा पूर्व काल में रचे गए कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी एक ऐसे चूर्ण का विवरण है जो तेज़ी से जलता था, तेज़ लपटें पैदा करता था और यदि इसे एक नालिका में ठूंस दिया जाए तो पटाख़ा बन जाता था. बंगाल के इलाक़े में बारिश के मौसम में बाद कई इलाक़ों में सूखती हुई ज़मीन पर ही लवण की एक परत बन जाती थी.इस लवण को बारीक पीस लेने पर तेज़ी से जलने वाला चूर्ण बन जाता था. यदि इसमें गंधक और कोयले के बुरादे की उचित मात्रा मिला दी जाए तो इसकी ज्वलनशीलता भी बढ़ जाती थी. जहां ज़मीन पर यह लवण नहीं मिलता था वहां इसे उचित क़िस्म की लकड़ी की राख की धोवन से बनाया जाता था. वैद्य भी इस लवण का इस्तेमाल अनेक बीमारियों के लिए करते थे.
लगभग सारे देश में ही यह चूर्ण और इससे बनने वाला बारूद मिल जाता था. पर लगता नहीं कि इसका इस्तेमाल पटाख़े बनाने में होता था. ख़ुशियां मनाने के लिए, उल्लास जताने के लिए घर द्वार पर रौशनी ज़रूर की जाती थी. पर इस रौशनी में भी पटाखों का तो कोई विवरण नहीं मिलता. घी के दिए जलने का उल्लेख ज़रूर है.
यह बारूद इतना ज्वलनशील भी नहीं था कि इसका इस्तेमाल दुश्मन को मारने के लिए किया जा सके. उस तरह के बारूद का ज़िक्र तो शायद पहली बार 1270 में सीरिया के रसायनशास्त्री हसन अल रम्माह ने अपनी किताब में किया जहां उन्होंने बारूद को गरम पानी से शुद्ध कर के ज़्यादा विस्फोटक बनाने की बात कही.
मुग़लों के दौर में आतिशबाज़ी और पटाखे ख़ूब इस्तेमाल होते थे, ये तो पता है. लेकिन ये कहना सही नहीं होगा कि भारत में पटाखे मुग़ल ही लेकर आए थे. ये दरअसल, उनसे पहले ही आ चुके थे.
पेंटिंग भी हैं. दारा शिकोह की शादी की पेंटिंग में लोग पटाखे चलाते हुए देखे जा सकते हैं. लेकिन ये मुग़लों से पहले भी थे. फ़िरोज़शाह के ज़माने में भी आतिशबाज़ी ख़ूब हुआ करती थी.'
गन पाउडर बाद में भारत में आया. लेकिन मुग़लों से पहले पटाखे ज़रूर आ गए थे. इसका बड़ा इस्तेमाल शिकार या हाथियों की लड़ाई के दौरान होता था. पटाखे चलाए जाते थे ताकि उन्हें डराया जा सके.
मुग़ल दौर में शादी या दूसरे जश्न में भी पटाखे और आतिशबाज़ी होती थी.
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