युद्ध होने पर चीन का electronic उधोग तबाह हो जाएगा, क्योंकि ताइवान ही semiconductor देता है। Tiwan का चिप उद्योग इलेक्ट्रॉनिक इंडस्ट्री की रीड है।
चीन की ताइवान पर कब्जे की क्षमता नहीं।
ताइवान की ये रणनीति 'सिलिकॉन शील्ड' की तरह काम करती है. ताइवान के लिए ये एक तरह का ऐसा 'हथियार' है जिसे कोई और देश निकट भविष्य में आसानी से नहीं बना सकता है.
ये ताइवान का एक अहम उद्योग है जिसपर लड़ाकू विमानों से लेकर सोलर पैनल तक और वीडियो गेम्स से लेकर मेडिकल उपकरण उद्योग तक निर्भर हैं. पत्रकार क्रेग एडिशन ने अपनी किताब 'सिलिकॉन शील्ड- प्रोटेक्टिंग ताइवान अगेंस्ट अटैक फ्रॉम चाइना' के शीर्षक में ये शब्द गढ़ा है.
क्रेग एटिशन कहते हैं, "इसका मतलब ये है कि ताइवान दुनिया भर में एडवांस्ड सेमीकंडक्टर चिप्स का अग्रणी उत्पादक है और इसी वजह से चीन की सेना उसके ख़िलाफ़ हमला नहीं कर पाती है."
क्रेग के मुताबिक़ दुनिया के इस सेक्टर में युद्ध का असर इतना व्यापक होगा कि चीन को भी इसकी भारी आर्थिक क़ीमत चुकानी पड़ेगी. ये युद्ध चीन को इतना महंगा पड़ सकता है कि चीन हमला करने से पीछे हटेगा.
दुनिया के बाकी देशों की तरह चीन भी ताइवान में बनने वाली एडवांस्ड सेमीकंडक्टर चिप्स पर निर्भर है. ये ऐसे ख़ास चिप होते हैं जिनपर सेमीकंडक्टर सर्किट बनाए जाते हैं. ये चिप सिलिकॉन से बने होते हैं. दुनिया के लगभग सभी तकनीकी उत्पादों की जान इन्हीं चिप्स में बसती है.
ये ताइवान की सुरक्षा कैसे कर सकती हैं?
इसे शीत युद्ध के दौरान के 'मैड सिद्धांत' (एमएडी यानी म्युचुअल एश्योर्ड डिस्ट्रक्शन जिसका मतलब हुआ कि दोनों का बर्बाद होना सुनिश्चित है) से समझा जा सकता है.
ताइवान की खाड़ी में सैन्य कार्रवाई का असर इतना व्यापक हो सकता है कि चीन या अमेरिका भी उससे बचे नहीं रह सकेंगे.
ऐसे में ये 'सिलिकॉन शील्ड' असरदार तरीके से ताइवान को चीन की सेना के हमले से सुरक्षित रखती है. क्रेग कहते हैं कि ताइवान पर हमले की क़ीमत इतनी भारी होगी कि चीन की सरकार को हमला करने से पहले बार-बार सोचना पड़ेगा.
सेमीकंडक्टर माइक्रोचिप्स की किल्लत का ताइवान कनेक्शन क्या है?
ऑटोमोटिव सेक्टर में सेमीकंडक्टर की किल्लत इसलिए महसूस हुई क्योंकि कंपनियां इस बात का हिसाब-किताब ठीक से नहीं बिठा पाईं कि कोरोना महामारी के बाद मांग के पटरी पर आने में कितना समय लगेगा.
पहले तो कंपनियों ने चिप के ऑर्डर कैंसल कर दिए लेकिन फिर उन्हें एहसास हुआ कि जब वे नए ऑर्डर देंगे तो उन्हें कतार में सबसे आख़िर में खड़ा होना होगा. बाद में ये किल्लत अन्य इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के मामले में भी महसूस होने लगी.
इसमें लैपटॉप और गेमिंग मशीनें शामिल थीं. दुनिया भर में लॉकडाउन के कारण इनकी मांग तेज़ी से बढ़ी थी. ताइवान इन उत्पादों का प्रमुख आपूर्तिकर्ता है. इसी वजह से जल्द ही ग्लोबल सप्लाई चेन पर नकारात्मक असर पड़ा.
ताइवानी कंपनी की भूमिका
इस किल्लत को देखते हुए दुनिया भर में सेमीकंडक्टर चिप्स की मांग के एक चौथाई हिस्से की आपूर्ति करने वाली 'ताइवान सेमीकंडक्टर मैनुफैक्चरिंग कंपनी' (टीएसएमसी) एक नए उत्पादन प्लांट में निवेश कर रही है.
लेकिन ये उसकी दीर्घकालीन नीति है. तात्कालिक रूप से टीएसएमसी ने उन खरीदारों को प्राथमिकता देने का फ़ैसला किया है जिन्हें इसकी जल्द ज़रूरत है. वैसे खरीदार जो ज़्यादा मात्रा में खरीदारी करके किल्लत का फायदा उठाना चाहते हैं, उन्हें इंतज़ार करने को कहा जा रहा है.
टीएसएमसी की कोशिश चिप इंडस्ट्री का स्विट्ज़रलैंड बनने की रही है. इसका मतलब ये हुआ वो तटस्थ बने रहना चाहता है. लेकिन अब ये रणनीति अपने आख़िरी मुकाम पर पहुंच गई है.
चीन के साथ ट्रेड वार में जब चीनी कंपनी ख़्वावे पर अमेरिका ने पाबंदियां लगाईं तो टीएसएमसी को वाशिंगटन का साथ चुनना पड़ा था. सच तो ये भी था कि टीएसएमसी के पास ऐसा करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा था.
साल 2020 के आंकड़ों के मुताबिक़ टीएसएमसी को तकरीबन 62 फीसदी ऑर्डर नॉर्थ अमेरिका से मिले थे.
एप्पल, एनवीडिया, क्वालकॉम जैसी कंपनियों से टीएसएमसी को कमाई होती है और साल 2020 में उसकी कुल बिक्री का केवल 17 फीसदी हिस्सा ही चीन से मिला था जिसमें ख़्वावे का ऑर्डर भी शामिल है.
दूसरी तरफ़ टीएसएमसी की निर्भरता कुछ अमेरिकी कंपनियों पर भी है. ये अमेरिकी कंपनियां वो मशीनें बनाती है जो माइक्रोचिप बनाने के काम आती हैं. इस वजह के कारण भी टीएसएमसी अमेरिका की मर्जी के ख़िलाफ़ जाने की स्थिति में नहीं है.
अगर वो ऐसा करता तो वो भी पाबंदियों के दायरे में आ जाता और अमेरिकी टेक्नॉलॉजी उसे नहीं मिल पाती.
कहा जाता है कि टीएसएमसी वो ताइवानी कंपनी है जिसकी आत्मा अमेरिकी है क्योंकि इसके संस्थापक मॉरिस चांग और ज़्यादातर सीईओ और अन्य शीर्ष अधिकारियों ने अपने कॉलेज की पढ़ाई अमेरिका में की है और उन्होंने अमेरिकी कंपनियों में लंबे समय तक काम किया है. इनमें से कई तो अब अमेरिकी नागरिक हैं.
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