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India:100 करोड़ सनेटरी पैड pollution फ़ैला रहे है हर साल .....

 SANITORY PAD CAUSE POLLUTION IN NATURE DUE TO PLASTIC COMPONENTS



सैनिटरी पैड्स का कचरा कहां जाता है?

एमएचएआई संस्थाओं का नेटवर्क है जो माहवारी के दौरान स्वास्थ्य और स्वच्छता संबंधित विषयों पर काम करता है.

इनके आकलन के मुताबिक़ 12.1 करोड़ महिलाएं सैनिटरी पैड्स का इस्तेमाल करती हैं. अगर एक साइकिल में महिलाएं आठ पैड्स का इस्तेमाल करती हैं तो एक महीने में महिलाएं एक अरब पैड्स का इस्तेमाल करती हैं यानि एक साल में 1200 करोड़ पैड्स का इस्तेमाल होता है.

लेकिन ये कचरा कहां जाता है? सरकार, निर्माता कंपनियों को इस्तेमाल हुए सैनिटरी पैड्स को फेंकने के लिए डिग्रेडेबल बैग देने की बात कर रही है लेकिन सैनिटरी पैड्स से होने वाले कचरे के बारे में सोचना भी उतना ही ज़रूरी माना जाता हैं.

इसी संस्था के मुताबिक़ एक सैनिटरी पैड सड़ने-गलने या डिकम्पोज़ होने में 500-800 साल लेता हैं क्योंकि उसमें इस्तेमाल होने वाला प्लास्टिक नॉन- बॉयोडिग्रेडबल यानि नष्ट नहीं किया जा सकता है और जिससे वो स्वास्थय के साथ-साथ पर्यावरण के लिए ख़तरा बन जाता है.

बाज़ार में उपलब्ध ज्यादातर पैड्स सैल्युलोस, सुपर अब्ज़ॉर्बेंट पोलिमर (SAP), प्लास्टिक कवरिंग और गोंद यानि कई ऐसे अव्यव या कॉपोनेंट्स से बने होते हैं जो आसानी से सड़ते गलते या डीकम्पोज़ नहीं होते और पर्यावरण में बने रहते हैं और पानी और मिट्टी को प्रदूषित करते रहते हैं.

ऐसे सैनिटरी पैड्स जिनमें ख़ासकर SAP होता है उनको जलाने से ज़हरीले रसायन निकलते हैं जैसे डाइऑक्सिन और फ्यूरन जो कि कॉर्सिनजन या कैंसरकारी माने जाते है और स्वास्थ्य के लिए घातक होते हैं.

वहीं सरकार ने भी ब्यूरो ऑफ़ इंडियन सटैन्डर्ड के तहत सैनिटरी पैड्स के निर्माण के लिए दिए गए मानकों की समीक्षा की है जिसमें कहा गया है कि जहां ऐसे उत्पाद विकसित करने का दावा किया गया है जिनसे कंपोस्ट या खाद बन सकता है. इस उत्पाद का टेस्ट किया जाना चाहिए.

आकार इनोवेशन प्राइवेट लिमिटेड के संस्थापक जयदीप मंडल इस दिशा में कई वर्षों से काम कर रहे हैं और कंपोस्टिबव पैड्स बनाने वाली भारत की पहली कंपनी होने का दावा करते हैं.

मंडल कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी पा चुके हैं. वे कहते हैं कि उनकी कंपनी द्वारा निर्मित पैड्स में सारे मैटिरियल कंपोस्टिबल होतें हैं और उनके पैड्स में प्लास्टिक कवरिंग की जगह वे आलू से निकलने वाले स्टार्च इस्तेमाल करते हैं.

वे कहते हैं सैनिटरी पैड्स में इस्तेमाल होने वाला वूड पल्प अमरीका और कनाडा से आता है ऐसे में उन्होंने इसे कम करने के लिए विकल्प भी तलाशें है जिसमें केले या गन्ना से मिलने वाला फ़ाइबर, जूट और बैंबू से मिलने वाले फ़ाइबर शामिल है.

वे कहते हैं, ''पैड्स बॉयोडिग्रेडबल की जगह कंपोसटिबल होने चाहिए यानि जो खाद में तब्दील हो जाए. क्योंकि बॉयोडिग्रेडबल का मतलब होता है प्राकृतिक तौर पर नष्ट होना और ये उसमें एक दिन लेकर कई वर्ष लग सकते हैं बाज़ार में ऐसी भी कंपनियां है जिनके पैड्स ऑक्सो डिग्रेडेबल होते हैं यानि वे सूरज की किरण, यूवी किरणों, और गर्मी के कारण माइक्रो प्लास्टिक बन जाते है. ये प्लास्टिक पशुओं के लिए ज्यादा घातक हो सकता है क्योंकि वे ज़मीन से उगी हुई चीज़ों को सीधे खा जाते है जिसके कारण ये माइक्रो प्लास्टिक भी उनके पेट में चला जाता है. वहीं इंसान के शरीर में भी जा सकते हैं.''

वहीं यूरोप में ऑक्सो डिग्रेडबल उत्पादों पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है.

ऋृचा सिंह सैनिटरी पैड्स से होने वाले कचरे के उपाय के लिए डिस्पोज़बल बैग के साथ-साथ इनसिनेरेटर लगाने पर ज़ोर देती हैं.

अजिंक्य धारिया पैड केयर लैब स्टार्टअप के मालिक हैं और उन्होंने ये कंपनी 2018 शुरू की थी. वे केंद्र और महाराष्ट्र सरकार के साथ मिलकर काम कर रहे हैं.

वे सरकार के डिस्पोज़ेबल बैग देने के क़दम को सही बताते हैं लेकिन वे सैनिटरी नैपकिन से होने वाले कचरे के निपटान के लिए इनसिनेरेटर लगाने को इसका सही इलाज नहीं मानते और इसके पीछे वे वैज्ञानिक तर्क देते हैं.

इनसिनेरेटर प्लांट पर वे कहते हैं ,''उसमें वेस्ट या कचरा 800 डिग्री पर जलाया जाता है. उसमें प्लास्टिक और अन्य कचरा भी होता है. लेकिन नियमों के अनुसार इस तरह के बॉयोमेडिकल वेस्ट को इनसिनेरेटर में जाना चाहिए. उससे जो राख निकलती है उसे अलग जगह पर फेंकना चाहिए. अभी ये प्रक्रिया होनी चाहिए लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है.''


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