*श्री चित्रगुप्त शोध चिंतन*
*जम्मू कश्मीर पर पहला अधिकार मुसलमानों व कश्मीरी ब्राम्हणों का नहीं बल्कि कायस्थों का है*
*आज़ यह बहस राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बारबार होती है कि कश्मीर मुसलमानों को मिलना चाहिए क्योंकि उनकी जनसंख्या वहा अधिक है,पर सच्चाई यह है कि 8 वीं शताब्दी के पूर्व से ही वहां कायस्थों का राज्य रहा है* चाहे वह
ललितादित्य
अवन्तिवर्मन—८५५/६-८८३
शंकरवर्मन राजा—८८३-९०२
गोपालवर्मन—९०२-९०४
सुगन्धा—९०४-९०६
पार्थ राजा- ९०६-९२१ + ९३१-९३५
चक्रवर्मन- ९३२-९३३ + ९३५-९३७
यशस्कर—९३९-९४८
संग्रामदेव—९४८-९४९
पर्वगुप्त—९४९-९५०
क्षेमगुप्त—९५०-९५८
अभिमन्यु राजा—९५८-९७२
नन्दिगुप्त—९७२-९७३
त्रिभुवन—९७३-९७५
भीमगुप्त—९७५-९८०
दिद्दा—९८०/१-१००३
संग्रामराज—१००३-१०२८
अनन्त राजा—१०२८-१०६३
कलश राजा—१०६३-१०८९
उत्कर्ष—१०८९
हर्ष देव—१०८९-११०१ आदि का उल्लेख बारहवीं शताब्दी में कल्दण द्वारा लिखी गयी राजतरंगिनी में मिलता है।
इसके बाद डोगरा साम्राज्य की स्थापना होती है जिसे मूलतः कायस्थ साम्राज्य ही कहा जाता है तथा इसमें गुलाब चन्द्र ,प्रतापचन्द्र के ही कलान्तर में वंशज हरिसिंह हुए है जिन्हें कश्मीर के अंतिम शासक के रूप में जाना पहचाना जाता है तथा इन्होंने ही विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर भारत की अधिनता स्वीकार की।
*जहां तक कश्मीर में मुसलमानों की आवाजाही का प्रश्न है वह मुगल काल में 15वीं शताब्दी के बाद प्रारम्भ होता है,जबकि इसके पूर्व जम्मू कश्मीर शुद्ध हिन्दू कायस्थ रियासत थी,परन्तु यह देश का दुर्भाग्य है कि वोटो की राजनीति में जो तेजी से संख्या बल के साथ चिल्लाता है उसकी ही बात को सही मान लिया जाता है। इसलिए ही विश्व फलक पर आज जनमत कराकर कश्मीर को स्वतंत्र राज्य बनाने की बात अक्सर गूंजती है। आज कश्मीर के हुक्मरान मुसलमान होते हैं तथा कश्मीर पर अपना पूर्ण नियंत्रण व प्रभुत्व स्थापित करने के लिए कश्मीरी ब्राम्हणों से संघर्ष करते हैं परन्तु वास्तव में कश्मीर जिन कायस्थ राजाओं के समय फला फूला है उन्हें कोई नही जानता तथा कश्मीर के वास्तविक उत्तराधिकारियों का लोप हो गया है।जिसे भारत का सिकंदर कहा जाता है वह अखंड हिन्दू सम्राट जिन्होंने सर्वाधिक सीमाएं भारत की बढ़ाई वह कायस्थ विभूति ललितादित्य मुक्तापीड़ है।
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