MEDAL MANUFACTURING CAUSE 10-15 YEARS DELAY IN INDIAN ARMY.
LACK OF COORDINATION TO DELIVER MEDAL ON TIME.
मेडल पाना किसी भी सैनिक के लिए गौरव की बात होती है। लेकिन कई बहादुर सैनिकों को मेडल का हकदार होने के बावजूद दुकानों से रेप्लिका मेडल खरीदना पड़ रहा है। वजह, आर्मी ऑरिजनल मेडल पहुंचाने में सालों लगा देती है।
ये रेप्लिका मेडल हैदराबाद, सिकंदराबाद के मेहदीपटनम और गोलकोंडा में खरीदे जा सकते हैं। इन्हें 'टेलर कॉपी' कहा जाता है जो लाल बाजार के रेजिमेंटल मार्केट में 40-180 रुपये में मिलते हैं। रक्षा मंत्रालय के मुताबिक नॉन-गैलेंट्री अवॉर्ड्स को डिलिवर करने में 10 साल तक की देरी हो जाती है। हमारे सहयोगी अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया की छानबीन के मुताबिक मेडल्स और बैजेस के साथ पूरी यूनिफॉर्म खरीदने के लिए कम से कम 2,500 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। गैलेंट्री अवॉर्ड्स (वीरता पुरस्कार) के अलावा बाकी सभी मेडल्स खरीदे-बेचे जाते हैं। चूंकि वीरता मेडल पर इसे पाने वाले सैनिक का नाम और आर्मी नंबर लिखा होता है इसलिए इसे दुकानों से नहीं खरीदा जा सकता।
सेना में 24 साल तक अपनी सेवा देने वाले मोहम्मद रफी ने कबूला,'हां, मैंने 10 में से 9 मेडल दुकान से खरीदे हैं।' आर्मी ने रफी को 10 मेडल देने का ऐलान किया था लेकिन उन तक सिर्फ एक मेडल ही पहुंचा। वह जब साढ़े सत्रह साल के थे, तभी से उन्होंने सेना में काम करना शुरू कर दिया था। उन्होंने अपनी काबिलियत और लगन से अच्छी रैंक पाई और आखिर में हवलदार बनकर लौटे। रफी कहते हैं,'मुझे सभी मेडल्स हाथो-हाथ मिल जाने चाहिए थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ।' उन्हें जम्मू-कश्मीर के दुर्गम ऊंचाई वाले इलाकों में सेवा के लिए ये मेडल दिए गए थे। पूर्व सैन्यकर्मियों का कहना है कि आर्मी के विभिन्न विंग्स में तालमेल न होने की वजह से मेडल पहुंचाने में देर होती है।
इस तरह निजी दुकानों में मेडल बेचा जाना सुरक्षा के लिए भी बड़ खतरा है। हमारे रिपोर्टर ने पड़ताल के लिए कई ऐसी 'टेलर कॉपियां' खरीदीं जो सरकार द्वारा जारी नहीं की गई थीं। दुकानों में आर्मी यूनिफॉर्म पर लगा ए जाने वाले बैज भी मिलते हैं। इतना ही नहीं रिपोर्टर ने करगिल वार में हिस्सा लेने वाले सैनिकों को दिए जाने वाले मेडल्स के रेप्लिका भी खरीदे। इनमें करगिल युद्ध के लिए 'ऑपरेशन विजय', डेजिग्नेटेड ऑपरेशन के लिए 'सामान्य सेवा मेडल' और ऊंचे स्थानों पर तैनाती के लिए 'उच्च तुंग' मेडल शामिल थे। तीनों मेडल्स के साथ उचित रिबन भी लगे थे।
सैनिक वेलफेयर के डायरेक्टर कर्नल पी. रमेश कुमार (रिटायर्ड) ने कबूला कि सैनिकों को मेडल देने में देरी होती है। उन्होंने यह भी कहा कि जो सैनिक मेडल जल्दी पाना चाहते हैं वे इन्हें दुकानों से खरीद सकते हैं। कर्नल रमेश का कहना है कि दुकानों से मेडल खरीदने वाले सैनिक कोई 'फ्रॉड' नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे वही खरीद रहे हैं, जिसके वे हकदार हैं। इंडियन मिलिटरी वेबसाइट्स के संघ 'भारत रक्षक' के जगन पिल्लारिशेट्टी ने कहा,'मेडल पहनना किसी भी सैनिक के लिए गर्व का विषय है। ये सैनिकों द्वारा दी जाने वाली तमाम सेवाओं को सरकार की ओर से मिलने वाली पहचान और प्रशंसा को दर्शाते हैं।'

LACK OF COORDINATION TO DELIVER MEDAL ON TIME.
सैनिकों को मेडल पहुंचाने में होती है देरी, दुकानों से मेडल खरीदने को मजबूर
मेडल पाना किसी भी सैनिक के लिए गौरव की बात होती है। लेकिन कई बहादुर सैनिकों को मेडल का हकदार होने के बावजूद दुकानों से रेप्लिका मेडल खरीदना पड़ रहा है। वजह, आर्मी ऑरिजनल मेडल पहुंचाने में सालों लगा देती है।
ये रेप्लिका मेडल हैदराबाद, सिकंदराबाद के मेहदीपटनम और गोलकोंडा में खरीदे जा सकते हैं। इन्हें 'टेलर कॉपी' कहा जाता है जो लाल बाजार के रेजिमेंटल मार्केट में 40-180 रुपये में मिलते हैं। रक्षा मंत्रालय के मुताबिक नॉन-गैलेंट्री अवॉर्ड्स को डिलिवर करने में 10 साल तक की देरी हो जाती है। हमारे सहयोगी अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया की छानबीन के मुताबिक मेडल्स और बैजेस के साथ पूरी यूनिफॉर्म खरीदने के लिए कम से कम 2,500 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। गैलेंट्री अवॉर्ड्स (वीरता पुरस्कार) के अलावा बाकी सभी मेडल्स खरीदे-बेचे जाते हैं। चूंकि वीरता मेडल पर इसे पाने वाले सैनिक का नाम और आर्मी नंबर लिखा होता है इसलिए इसे दुकानों से नहीं खरीदा जा सकता।
सेना में 24 साल तक अपनी सेवा देने वाले मोहम्मद रफी ने कबूला,'हां, मैंने 10 में से 9 मेडल दुकान से खरीदे हैं।' आर्मी ने रफी को 10 मेडल देने का ऐलान किया था लेकिन उन तक सिर्फ एक मेडल ही पहुंचा। वह जब साढ़े सत्रह साल के थे, तभी से उन्होंने सेना में काम करना शुरू कर दिया था। उन्होंने अपनी काबिलियत और लगन से अच्छी रैंक पाई और आखिर में हवलदार बनकर लौटे। रफी कहते हैं,'मुझे सभी मेडल्स हाथो-हाथ मिल जाने चाहिए थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ।' उन्हें जम्मू-कश्मीर के दुर्गम ऊंचाई वाले इलाकों में सेवा के लिए ये मेडल दिए गए थे। पूर्व सैन्यकर्मियों का कहना है कि आर्मी के विभिन्न विंग्स में तालमेल न होने की वजह से मेडल पहुंचाने में देर होती है।
इस तरह निजी दुकानों में मेडल बेचा जाना सुरक्षा के लिए भी बड़ खतरा है। हमारे रिपोर्टर ने पड़ताल के लिए कई ऐसी 'टेलर कॉपियां' खरीदीं जो सरकार द्वारा जारी नहीं की गई थीं। दुकानों में आर्मी यूनिफॉर्म पर लगा ए जाने वाले बैज भी मिलते हैं। इतना ही नहीं रिपोर्टर ने करगिल वार में हिस्सा लेने वाले सैनिकों को दिए जाने वाले मेडल्स के रेप्लिका भी खरीदे। इनमें करगिल युद्ध के लिए 'ऑपरेशन विजय', डेजिग्नेटेड ऑपरेशन के लिए 'सामान्य सेवा मेडल' और ऊंचे स्थानों पर तैनाती के लिए 'उच्च तुंग' मेडल शामिल थे। तीनों मेडल्स के साथ उचित रिबन भी लगे थे।
सैनिक वेलफेयर के डायरेक्टर कर्नल पी. रमेश कुमार (रिटायर्ड) ने कबूला कि सैनिकों को मेडल देने में देरी होती है। उन्होंने यह भी कहा कि जो सैनिक मेडल जल्दी पाना चाहते हैं वे इन्हें दुकानों से खरीद सकते हैं। कर्नल रमेश का कहना है कि दुकानों से मेडल खरीदने वाले सैनिक कोई 'फ्रॉड' नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे वही खरीद रहे हैं, जिसके वे हकदार हैं। इंडियन मिलिटरी वेबसाइट्स के संघ 'भारत रक्षक' के जगन पिल्लारिशेट्टी ने कहा,'मेडल पहनना किसी भी सैनिक के लिए गर्व का विषय है। ये सैनिकों द्वारा दी जाने वाली तमाम सेवाओं को सरकार की ओर से मिलने वाली पहचान और प्रशंसा को दर्शाते हैं।'
